हेराक्लियस के जैसा न बनें (भाग 2 का 2): समकालीन मुद्दे और बाहरी दबाव

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विवरण: यदि कोई व्यक्ति मानता है कि इस्लाम ही हक़ीकत है तो उसे बिना देर किए इस धर्म को क़बूल कर लेना चाहिए।

  • द्वारा Aisha Stacey (© 2012 NewMuslims.com)
  • पर प्रकाशित 04 Nov 2021
  • अंतिम बार संशोधित 04 Nov 2021
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DoNotFollowHeraclius2.jpgपैगंबर मुहम्मद के प्यारे चाचा और समर्थक अबू तालिब और बाइज़ेंटाइन साम्राज्य के राजा हेराक्लियस दोनों ने इस्लाम को क़बूल नहीं करने का फैसला किया। दोनों ही मामले को देखकर हम काफी हद तक आश्वस्त हो सकते हैं कि यह एक ऐसा निर्णय था जिसे उन्होंने बगैर सोचे-समझे नहीं लिया था, हालांकि दोनों ने ही बाहरी दबावों के आगे झुकने का फैसला किया। केवल ईश्वर के खौफ़ से डरने के बजाय वे दोनों इस बात से डरते थे कि दूसरे लोग क्या सोचेंगे, क्या कहेंगे या क्या करेंगे। आज, हज़ारों वर्ष बीतने के बाद भी, कई लोग खुद को उसी स्थिति में पाते हैं। वे ये जानते हैं या महसूस करते हैं कि इस्लाम सही या सच्चा धर्म है, फिर भी वे इस तोहफे को अस्वीकार कर देते हैं जो कि ईश्वर ने उन्हें दिया है।

आधुनिक समाज में ऐसे कई दबाव है जो इस्लाम को क़बूल करने को काफ़ी कठिन बना देता है। बाहरी दबाव आधुनिक दौर के लोगों को भी अबू तालिब और राजा हेराक्लियस के समान स्थिति में लाकर खड़ा कर सकता है। हालांकि, ईश्वर किसी को इस्लाम का साथी बनाकर यूं ही नहीं छोड़ देता। यदि कोई व्यक्ति नि:संदेह यह जानता है कि इस्लाम सही धर्म है, तो वे इसे लेकर भी सुनिश्चित हो सकता है कि ईश्वर के पास उनका मार्गदर्शन करते रहने और उनके इस सफ़र को आसान बनाने का अधिकार और शक्ति दोनों मौजूद है। कभी-कभी सामने मौजूद मसले काफ़ी गंभीर और पहाड़ जैसे लग सकते हैं लेकिन वह पहाड़ भी सिवाय सृष्टि के एक हिस्से को छोड़कर और क्या है जो पूरी तरह से ईश्वर की इच्छा के अधीन है?

"क्या आप नहीं जानते कि वो सब ईश्वर ही को सज्दा करते हैं, जो आकाशों तथा धरती में हैं, सूर्य और चांद, तारे और पर्वत, वृक्ष और पशु, बहुत-से मनुष्य...” (कुरआन 22:18)

ईश्वर ने इस्लाम धर्म को अपनाना आसान बनाया है लेकिन हम, मनुष्य, आदम के बेटे और बेटियों ने अपने जीवन को कठिन और बाधाओं से भरपूर बनाने का एक अनोखा तरीका ईजाद कर लिया है जो कि असल में वैसा नहीं है।

"...ईश्वर नहीं चाहता है कि वह तुम पर कोई कठिनाई डाले..." (कुरआन 5:6)

"...जो व्यक्ति ईश्वर पर भरोसा करेगा तो ईश्वर उसके लिए पर्याप्त है..." (कुरआन 65:3)

भरोसे के बारे में क़ुरआन की यह छंद (आयत) कहने और समझने में आसान है हालांकि जब बात उस भरोसे को अमल में लाने की आती है तो ऐसा करना हमेशा आसान नहीं होता है। ऐसा दो कारणों से होता है। बेशक, जब कोई व्यक्ति इस्लाम को अपनाने के रास्ते पर चलता है, तो शैतान उस पर छल और भ्रम की बौछार करता है, जो उस व्यक्ति को ईश्वर के बताए सीधे रास्ते से दूर ले जाने के लिए बनाया जाता है। और दूसरी बात, जो लोग ईश्वर की हक़ीकत को पूरी तरह से नहीं समझते हैं, वे अपने परिवार, दोस्तों या सहकर्मियों की प्रतिक्रिया के बारे में सोचकर डर जाते हैं। अबू तालिब को डर था कि अगर उन्होंने अपने पूर्वजों के धर्म को अस्वीकार कर दिया तो उन्हें एक सम्मानित व्यक्ति नहीं माना जाएगा, और हेराक्लियस ने सोचा कि वह अपना पद, अपनी शक्ति या अपने जीवन को खो देगा। शाश्वत स्वर्गवास या नरकवास की तुलना में इन चीज़ों का कोई महत्व नहीं है, हालांकि मनुष्य इस मायावी दुनिया से खुद को अलग करने के लिए लगातार लड़ाई लड़ रहा है।

जब कोई व्यक्ति इस्लाम धर्म को अपनाता है तो कुछ बड़े बदलाव होने तय हैं। इस्लाम धर्म को अपनाने के दौरान भावनात्मक त्याग करने पड़ते हैं। प्रत्येक व्यक्ति एक बदले हुए व्यक्ति की तरह महसूस करने लगता है और धीरे-धीरे अलग तरह से पेश आने लगता है। हमारे मन में कई तरह के प्रश्न, विचार और परिदृश्य उभरने लगते हैं, और शैतान पूरी लगन से रात-दिन बहकाने का काम करता है। शायद अबू तालिब के सामने भी यही सारे मसले पेश आए होंगे और हेराक्लियस ने सोचा होगा कि यदि उसने इस बात पर ज़ोर दिया या मुहम्मद की शिक्षाओं का पालन करने के अपने इरादों को प्रकट किया तो उसका जीवन खतरे में पड़ जाएगा।

आज के दौर में भी हम खुद से कई तरह के सवाल पूछते हैं लेकिन वे हमें उसी प्रकार की परेशानियों में डाल देते हैं। क्या मुझे अलग कपड़े पहनने चाहिए? क्या मुझे अपने परिवार को बताना चाहिए? क्या मुझे अब भी बाहर जाने, शराब पीने, डेट करने की इजाज़त है? ऐसे सैकड़ों प्रश्न हैं, लेकिन वास्तविकता यही है कि कोई व्यक्ति इस्लाम को अपनाना चाहता है या नहीं इस बात से इन प्रश्नों का कोई लेना-देना नहीं है। यदि कोई व्यक्ति इस्लाम को सत्य मानता है तो उसे बिना देर किए इस्लाम अपना लेना चाहिए। बाकी का विवरण बाद में आता है जब कोई व्यक्ति ईश्वर के साथ जुड़ता है और अपने विधाता की प्रकृति को समझता है।

प्रत्येक व्यक्ति का एक पूर्व निर्धारित जीवनकाल को जी रहा है। हम नहीं जानते कि हम कब मरने वाले हैं और शायद अगले पल ही हम इस दुनिया से कूच कर सकते हैं। इसी कारण किसी व्यक्ति को हेराक्लियस या अबू तालिब जैसा नहीं होना चाहिए। उन दोनों व्यक्तियों ने इस मायावी दुनिया से अपने प्रेम को अपने परलोक के जीवन का फैसला लेने दिया। किसी इंसान को पहले इस्लाम धर्म अपना लेना चाहिए और उसके बाद ईश्वर के ऊपर उसका यकीन उसे ईश्वर के साथ आजीवन संबंध की ओर ले जाएगा।

वेशभूषा से यह प्रकट करना कि आप मुसलमान हैं, इस्लाम क़बूल करने की शर्त नहीं है। साथ ही हमें उन परिवर्तनों को आसानी से अपानाना चाहिए जो इस्लाम को क़बूल करने के दौरान आते हैं और ईश्वर से अपने इस सफ़र को आसान बना देने की दुआ करनी चाहिए। पुरानी आदतों को धीरे-धीरे लेकिन पूरी तरह से बदल लेना चाहिए और ईश्वर की बनाई प्रकृति और उसके नियमों के बारे में सीखना प्रत्येक व्यक्ति को वैसा इंसान बना देता है जिसे ईश्वर चाहता है। इसलिए मुसलमान तो हम कुछ ही देर में बन सकते हैं, लेकिन एक बेहतर मुसलमान बनने के लिए हममें से हर एक इंसान को एक अच्छे और निरंतर प्रयास की आवश्यकता होती है।

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