ईश्वर में विश्वास (3 का भाग 1)
विवरण: इस्लाम धर्म का मर्म: ईश्वर में विश्वास और उसकी पूजा, और वे साधन जिनसे हम ईश्वर को खोज सकते हैं।
- द्वारा Imam Mufti
- पर प्रकाशित 04 Nov 2021
- अंतिम बार संशोधित 04 Nov 2021
- मुद्रित: 0
- देखा गया: 8,215
- द्वारा रेटेड: 0
- ईमेल किया गया: 0
- पर टिप्पणी की है: 0
परिचय
इस्लाम के केंद्र है ईश्वर में आस्था और विश्वास। इस्लाम धर्म के मूल में है ला इलाहा इल्ला अल्लाह का कथन, “ईश्वर के सिवाय ऐसा कोई सच्चा देवता नहीं है जो पूजा के योग्य हो।” इस विश्वास की गवाही जिसे तौहीद कहते हैं, वह धुरी (तकला) है जिसके चारों तरफ़ इस्लाम धर्म घूमता है। साथ ही, दो साक्ष्यों में यह पहला साक्ष्य है जो किसी व्यक्ति को मुस्लिम बनाता है। केवल एक ईश्वर की अवधारणा या तौहीद को समझ कर उसके लिये संघर्ष करना ही इस्लामी जीवन का मर्म है।
बहुत से गैर मुस्लिम लोगों के लिये, अल्लाह, जो अरबी भाषा में ईश्वर का नाम है, दूर दराज़ का कोई अजीब सा देवता है जिसे अरब के लोग पूजते हैं। कुछ लोग तो इसे मूर्तिपूजकों का "चंद्र-देव" समझते हैं। लेकिन अरबी भाषा में, अल्लाह शब्द का अर्थ है एकमेव सच्चा ईश्वर। यहाँ तक कि अरबी बोलने वाले यहूदी और ईसाई भी उस सर्वशक्तिमान को अल्लाह ही कहते हैं।
ईश्वर की खोज
पश्चिमी दार्शनिक, पूर्व के मनीषी और आज के वैज्ञानिक ईश्वर तक अपने तरीके से पहुँचने का प्रयास करते रहे हैं। मनीषी एक ऐसे ईश्वर के बारे में सिखाते हैं जो आध्यात्मिक अनुभवों से मिलता है, जो इस संसार का भाग है और अपनी सृष्टि में ही रहता है। दार्शनिक केवल तर्क के आधार पर ही ईश्वर को खोजते हैं और अक्सर ईश्वर को एक घड़ीसाज़ के रूप में देखते हैं जो निर्लिप्त है और जिसे अपनी सृष्टि में कोई रुचि नहीं है। दार्शनिकों का एक समूह अनीश्वरवाद सिखाता है, एक विचारधारा जो मानती है कि ईश्वर के अस्तित्व को न सिद्ध किया जा सकता है और न ही नकारा जा सकता है। व्यावहारिक दृष्टि से कहें तो, एक अनीश्वरवादी मानता है कि ईश्वर में विश्वास करने के लिये ज़रूरी है कि उसे सीधे अनुभव किया जा सके। ईश्वर ने कहा है:
"और जिन्हें ज्ञान नहीं है वे कहते हैं: ‘ईश्वर हमसे बात क्यों नहीं करता या क्यों हमें कोई [चमत्कारिक] संकेत नहीं दिखाया जाता?’ इनके पहले भी लोगों ने इसी आशय से कहा है। उन सबके हृदय एक समान हैं..." (क़ुरआन 2:118)
यह तर्क कोई नया नहीं है; भूतकाल में और वर्तमान में भी लोगों ने यही आपत्ति की है।
इस्लाम के अनुसार, ईश्वर को पाने का सही तरीका पैगंबरों की उन शिक्षाओं के माध्यम से है जो सरंक्षित हैं। इस्लाम मानता है कि स्वयं ईश्वर द्वारा युगों युगों से पैगंबर भेजे जाते रहे हैं ताकि वे मनुष्यों को उस तक पहुँचने के लिये मार्गदर्शन कर सकें। ईश्वर ने पवित्र क़ुरआन में कहा है कि उसमें विश्वास करने का सही तरीका है उसके संकेतों को समझना जो उसकी ओर इंगित करते हैं:
"…निस्संदेह, हमने सभी संकेत बनाए हैं उन लोगों के लिये जो आंतरिक रूप से निश्चिंत हैं।" (क़ुरआन 2:118)
ईश्वर की कारीगरी का वर्णन क़ुरआन में कई स्थानों पर होता है जो दिव्य उपदेश में दृष्टिगोचर होती है। जो कोई भी इस संसार में प्रकृति के चमत्कारों को खुली आँखों और खुले मन से देखता है तो वह निर्विवाद रूप से महान सर्जक के संकेतों को देख पाएगा।
"कहा गया: सारी पृथ्वी पर घूमो और देखो किस तरह [चमत्कारिक ढंग से] उसने सबसे पहले [मनुष्य का] सृजन किया: और इसी तरह, ईश्वर तुम्हारे लिये दूसरे जीवन का सृजन करेगा – क्योंकि, निस्संदेह, ईश्वर के पास कुछ भी करने की शक्ति है।" (क़ुरआन 29:20)
ईश्वर की कारीगरी व्यक्ति के अंदर भी उपस्थित है:
"और पृथ्वी पर संकेत हैं [ईश्वर के अस्तित्व के, प्रत्यक्ष] उन लोगों के लिये जो आंतरिक रूप से निश्चिंत हैं, जैसे कि [संकेत] तुम्हारे अपने अंदर हैं: तब फिर क्या तुम इन्हें नहीं देख सकते?" (क़ुरआन 51:20-21)
ईश्वर में विश्वास (3 का भाग 2)
विवरण: ईश्वर में विश्वास के दो पहलू हैं, यानी, उसके अस्तित्व में विश्वास और उसके सर्वोच्च स्वामित्व में विश्वास।
- द्वारा Imam Mufti
- पर प्रकाशित 04 Nov 2021
- अंतिम बार संशोधित 04 Nov 2021
- मुद्रित: 0
- देखा गया: 7,652
- द्वारा रेटेड: 0
- ईमेल किया गया: 0
- पर टिप्पणी की है: 0
ईश्वर में विश्वास करने के इस्लाम में चार पहलू हैं:
(I) ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास।
(II) ईश्वर ही सर्वोच्च स्वामी है।
(III) ईश्वर ही पूजा का अधिकारी है और कोई नहीं।
(IV) ईश्वर को उसके सबसे सुंदर नामों और गुणों से जाना जाता है।
(I) ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास
ईश्वर के अस्तित्व को किसी वैज्ञानिक, गणितीय, या दार्शनिक तर्कों के साक्ष्य की आवश्यकता नहीं है। उसकी हस्ती कोई 'आविष्कार' नहीं है जिसे किसी वैज्ञानिक प्रक्रिया या गणितीय प्रमेय द्वारा सिद्ध करना पड़े। सरल ढंग से कहें, सामान्य बुद्धि से ही ईश्वर के अस्तित्व को समझा जा सकता है। जिस तरह हम एक जहाज से जहाज निर्माता के बारे में जान जाते हैं, उसी तरह ब्रह्मांड से हम उसके सृष्टिकर्ता को जान सकते हैं। ईश्वर के अस्तित्व को प्रार्थनाओं से मिलने वाले प्रतिसाद से, पैगंबरों के चमत्कारों से और सभी ज्ञात धर्म शास्त्रों की शिक्षाओं से जाना जाता है।
इस्लाम में, मनुष्य को मूल रूप से पापी प्राणी के रूप में नहीं देखा जाता जिसके कारण उस मूल पाप को सुधारने के लिये स्वर्ग से संदेश दिया जाए, बल्कि एक ऐसा प्राणी होता है जो अपने मौलिक स्वभाव को बरकरार रखता है (अल-फ़ितर), और उसकी आत्मा पर एक ऐसी छाप होती है जो उपेक्षा की गहरी परतों के नीचे दबी रहती है। मनुष्य जन्म से पापी नहीं होता, लेकिन भूल जाने की प्रवृत्ति रखता है जैसा ईश्वर ने कहा है:
"…क्या मैं तुम्हारा पालनहार नहीं हूँ? सबने कहाः क्यों नहीं? हम (इसके) साक्षी हैं..." (क़ुरआन 7:172)
इस आयत में, "उन्होंने" शब्द सभी मनुष्यों के लिये प्रयुक्त हुआ है, स्त्रियों और पुरुषों दोनों के लिये। ‘हाँ’ कहना हमारी ब्रह्मांडीय अवस्था में केवल एक ईश्वर होने की हमारी स्वीकृति की पुष्टि करता है। इस्लामिक सिद्धांत कहता है कि स्त्री और पुरुष दोनों अपनी इस ‘हाँ’ की गूंज को अपनी आत्मा की गहराइयों में रखते हैं। इस्लाम मनुष्य के उस मौलिक स्वभाव की ओर इशारा करता है, जिसके कारण इस पृथ्वी पर आने से पहले उसने ‘हाँ’ कहा था। इस बात का ज्ञान कि इस ब्रह्मांड का कोई रचनाकार है यह इस्लाम का मूल है और इसलिए इसे किसी साक्ष्य की आवश्यकता नहीं। पेंसिलवानिया विश्वविद्यालय से संलग्न और धर्म के स्नायवीय अनुसंधान के विषय में अग्रणी एंड्रयू न्यूबर्ग और यूजीन डी'एक्यूली जैसे दोनों वैज्ञानिकों का कहना है, "हमारे तार ईश्वर से जुड़े हुए हैं।"[1]
पवित्र क़ुरआन अलंकारिक रूप से पूछती है:
"…क्या उस ईश्वर के बारे में कोई शंका हो सकती है, जिसने स्वर्ग और पृथ्वी की रचना की है?..." (क़ुरआन 14:10)
हम पूछ सकते हैं, ‘अगर ईश्वर में विश्वास नैसर्गिक है, तो कुछ लोगों में यह विश्वास क्यों नहीं होता?’ उत्तर बहुत सरल है। प्रत्येक मनुष्य में एक सृष्टिकर्ता के होने का आंतरिक विश्वास होता है, पर यह विश्वास किसी शिक्षा या व्यक्तिगत विश्लेषात्मक सोच का नतीजा नहीं होता। समय के साथ, बाहरी प्रभाव इस आंतरिक विश्वास पर असर करते हैं और व्यक्ति को भ्रमित कर देते हैं। इस तरह, हमारा वातावरण और पालन पोषण हमारे मौलिक स्वभाव पर पर्दा डाल कर उसे सत्य से दूर कर देता है। इस्लाम के पैगंबर ने, ईश्वर की दया और आशीर्वाद उन पर बना रहे, कहा:
"हर बच्चा फ़ितराह (ईश्वर में नैसर्गिक विश्वास) की अवस्था में पैदा होता है, और फिर उसके माता पिता उसे यहूदी, ईसाई, या मागियन बना देते हैं।" (सहीह मुस्लिम)
यह परदे अक्सर उठ जाया करते हैं जब किसी व्यक्ति का आध्यात्मिक संकट से सामना होता है और वह असहाय और कमज़ोर अनुभव करता है।
(II) ईश्वर ही सर्वोच्च स्वामी है
केवल ईश्वर ही स्वर्ग और पृथ्वी का स्वामी है। वह इस भौतिक सृष्टि का स्वामी है और मनुष्य जीवन का विधिपृदाता है। वह इस भौतिक जगत का स्वामी है और मनुष्य के जीवन का अधिष्ठाता है। ईश्वर प्रत्येक स्त्री, पुरुष, और बच्चे का स्वामी है। एतिहासिक रूप से, कुछ ही लोगों ने ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार किया है, जिसका अर्थ है युगों युगों से लोगों ने, अधिकतर समय, एक ईश्वर में विश्वास किया है, एक सर्वोच्च हस्ती, एक पारलौकिक सृष्टिकर्ता में। ईश्वर ही स्वामी है इस तथ्य के निम्नलिखित अर्थ हैं:
पहला, ईश्वर इस भौतिक जगत के एकमात्र स्वामी और शासक हैं। स्वामी का अर्थ है वह सृष्टिकर्ता है, नियंत्रक है, और स्वर्ग और पृथ्वी के साम्राज्य के मालिक हैं; यह सब केवल उसका है। उसने ही शून्य में से जीवन बनाया है, और सारी सृष्टि अपने सरंक्षण और निरन्तरता के लिये उस पर निर्भर करती है। ऐसा नहीं है कि, उसने ब्रह्मांड बनाकर उसे निश्चित नियमों के अनुसार अपने आप चलते रहने के लिये छोड़ दिया, और उसके बाद उसमें कोई रुचि लेना बंद कर दिया। एक जीवंत ईश्वर की शक्ति सभी प्राणियों को जीवित रहने के लिये पल पल आवश्यक है। सृष्टि में उसके अतिरिक्त और कोई स्वामी नहीं है।
"कहो (ओ मुहम्मद): ‘स्वर्ग और पृथ्वी से कौन तुम्हारे लिये आवश्यक प्रबंध करता है? और कौन मृतकों से जीवित और जीवितों से मृतक निकालता है? और कौन सब मामलों को निपटाता है?’ वे कहेंगे: ‘ईश्वर।’ कहो: ‘तब क्या तुम ईश्वर के दंड से (उसके सामने प्रतिद्वंदी खड़े करने के लिये) भयभीत नहीं होगे?" (क़ुरआन 10:31)
वह सदा शासन करने वाला और रक्षक है, प्रेम करने वाला ईश्वर, बुद्धि से भरपूर। उसके निर्णयों को कोई नहीं बदल सकता। फ़रिश्ते, पैगंबर, मनुष्य, और पशु एवं वनस्पति जगत उसके नियंत्रण में हैं।
दूसरा, ईश्वर ही मनुष्य के सभी मामलों का शासक है। ईश्वर सर्वोच्च विधिपृदाता है,[2] परम न्यायाधीश है, विधायक है, और वह सही को गलत से अलग करता है। जिस तरह यह भौतिक संसार अपने स्वामी के सम्मुख समर्पण करता है, मनुष्यों को भी अपने स्वामी की नैतिक और धार्मिक शिक्षाओं के सामने पूर्ण समर्पण करना चाहिए, वही स्वामी जो सही को गलत से अलग करता है। दूसरे शब्दों में, ईश्वर के पास ही विधान बनाने की, पूजा के कर्तव्य निर्धारित करने की, नैतिक मानदंड निर्धारित करने की, और मानव के परस्पर संवाद और व्यवहार के मानकों को निर्धारण करने की सत्ता है। उसका आदेश है:
"…सुन लो! वही उत्पत्तिकार है और वही शासक है। वही अल्लाह अति शुभ संसार का पालनहार है।" (क़ुरआन 7:54)
ईश्वर में विश्वास (3 का भाग 3)
विवरण: ईश्वर में विश्वास के तीसरे और चौथे पहलू इस प्रकार हैं, यानी, केवल ईश्वर ही पूजा का अधिकारी है और ईश्वर अपने सबसे सुंदर नामों और गुणों से जाना जाता है।
- द्वारा Imam Mufti
- पर प्रकाशित 04 Nov 2021
- अंतिम बार संशोधित 04 Nov 2021
- मुद्रित: 0
- देखा गया: 7,702
- द्वारा रेटेड: 0
- ईमेल किया गया: 0
- पर टिप्पणी की है: 0
(III) केवल ईश्वर ही पूजा का अधिकारी है
इस्लाम में इस बात पर बल अधिक दिया गया है कि ईश्वर में आस्था रखने से जीवन न्यायपूर्ण, आज्ञाकारी और अच्छे नैतिक मूल्यों वाला बनता है न कि धार्मिक जटिलताओं के माध्यम से ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने पर। इसलिए, इस्लाम का सिद्धांत है कि पैगंबरों द्वारा दिया गया प्राथमिक संदेश ईश्वर की इच्छा के आगे समर्पण करने और उसकी पूजा करने के लिये अधिक है बजाय ईश्वर के अस्तित्व का साक्ष्य बताने के लिये:
"और नहीं भेजा हमने आपसे (ओ मुहम्मद) पहले कोई भी रसूल, परन्तु उसकी ओर यही वह़्यी (प्रकाशना) करते रहे कि मेरे सिवा कोई पूज्य नहीं है। अतः मेरी ही इबादत (वंदना) करो।" (क़ुरआन 21:25)
केवल ईश्वर के पास ही आंतरिक या बाह्य रूप से पूजा करवाने का अधिकार है, अपने हृदय में या अंगों द्वारा। न ही किसी को ईश्वर के अलावा किसी और की पूजा करने का अधिकार है, और न ही ईश्वर के साथ किसी और की पूजा करने का। पूजा में उसके कोई भागीदार या सहयोगी नहीं हैं। पूजा, अपने सम्पूर्ण संदर्भ में और सभी पहलुओं में, केवल उसी के लिये है।
"उसके अलावा कोई और सच्चा ईश्वर पूजा करने योग्य नहीं है, वह सबसे दयालु है।" (क़ुरआन 2:163)
ईश्वर के पूजा कराने के अधिकार पर जितना जोर दिया जाए कम है। इस्लाम में विश्वास के प्रमाण का अनिवार्य अर्थ है: ला इल्लाह इल्ला अल्लाह कोई व्यक्ति पूजा के पवित्र अधिकार को स्वीकार करके ही मुस्लिम बनता है। इस्लामी मान्यता के अनुसार यह ईश्वर में विश्वास होने का मर्म है, सारे इस्लाम में। ईश्वर द्वारा भेजे गए सभी पैगंबरों और दूतों का यही मुख्य संदेश था - अब्राहम, ईज़ाक, इशमाइल, मोज़ेस, हिब्रू पैगंबरों, जीसस, और मुहम्मद, ईश्वर की दया और आशीर्वाद उन पर बना रहे। उदाहरण के लिये, मोज़ेस ने घोषित किया:
"सुनो, ओ इज़राएल; हमारा ईश्वर सबका स्वामी है।" (व्यवस्थाविवरण 6:4)
जीसस ने यही संदेश दोबारा दिया 1500 साल बाद जब उन्होंने कहा:
"सभी निर्देशों में पहला है, ‘सुनो, ओ इज़राएल; हमारा स्वामी ईश्वर सबका स्वामी है।" (मरकुस 12:29)
और शैतान को याद दिलाया:
"मुझसे दूर रहो, शैतान! क्योंकि यह लिखा हुआ है: अपने स्वामी ईश्वर की पूजा करो, और केवल उसकी सेवा करो।" (मत्ती 4:10)
अंत में, मुहम्मद का संदेश, मक्का की पहाड़ियों में जीसस के संदेश गूंजने के लगभग 600 साल बाद:
"और तुम्हारा ईश्वर ही एक ईश्वर है: उसके अतिरिक्त और कोई ईश्वर नहीं…" (क़ुरआन 2:163)
उन सबने स्पष्ट कहा:
"…ईश्वर को पूजो! उसके अतिरिक्त तुम्हारा कोई ईश्वर नहीं…" (क़ुरआन 7:59, 7:65, 7:73, 7:85; 11:50, 11:61, 11:84; 23:23)
पूजा क्या है?
इस्लाम में पूजा हर वह कार्य, विश्वास, वक्तव्य, या हृदय का भाव है जिसे ईश्वर स्वीकृति और प्यार देता है; हर वह बात जो किसी व्यक्ति को अपने सृष्टा के और पास ले जाती है। इसमे सम्मिलित हैं 'बाह्य' पूजा जैसे दैनिक पूजा की रीतियाँ, व्रत, दान, और तीर्थयात्रा साथ ही 'आंतरिक' पूजा जैसे विश्वास, श्रद्धा, प्रशंसा, प्रेम, आभार, और भरोसे के छः प्रावधानों में आस्था। ईश्वर को शरीर, आत्मा और हृदय से पूजे जाने का अधिकार है, और यह पूजा तब तक अधूरी रहती है जब तक कि इसमें ये चार अनिवार्य तत्व न हों: ईश्वर के प्रति आदरसूचक भय, दिव्य प्रेम और प्रशंसा, दिव्य पुरुस्कार की आशा, और परम विनम्रता।
पूजा का सबसे बड़ा काम है प्रार्थना करना, और मदद के लिये उस दिव्य हस्ती को याद करना। इस्लाम में निर्दिष्ट है कि प्रार्थना केवल ईश्वर की होनी चाहिए। वह हर मनुष्य के भाग्य का विधाता है, उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने और आपदा को दूर करने में सक्षम है। इस्लाम में, ईश्वर का अपने लिये पूजा करवाने का अधिकार सुरक्षित है:
"और ईश्वर के सिवा उसे न पुकारें, जो आपको न लाभ पहुँचा सकता है और न हानि पहुँचा सकता है। फिर यदि, आप ऐसा करेंगे, तो अत्याचारियों में हो जायेंगे।" (क़ुरआन 10:106)
किसी और को अपनी पूजा का एक भाग देना जो अनिवार्यतः केवल ईश्वर के लिये है, वह - पैगंबरों, फरिश्तों, जीसस, मैरी, मूर्तियों, या प्रकृति को, देना शिर्क कहलाता है और इस्लाम में यह सबसे बड़ा पाप माना जाता है। शिर्क ही एक ऐसा अक्षम्य पाप है जिसका अगर पश्चाताप न किया जाए तो वह सृष्टि के मूल उद्देश्य को नकार देता है।
(IV) ईश्वर अपने सबसे सुंदर नामों और गुणों से जाना जाता है
इस्लाम में ईश्वर को प्रकाशित इस्लामिक पाठों में मिलने वाले उसके सबसे सुंदर नामों और गुणों से जाना जाता है, उनके ज़ाहिर अर्थों को बदला या बिगाड़ा नहीं जा सकता, चित्र नहीं बनाया जा सकता, या उनकी मानव आकार में कल्पना नहीं की जा सकती।
"और सबसे सुंदर नाम ईश्वर के हैं, इसलिए उसको उन्हीं नामों से पुकारो…" (क़ुरआन 7:180)
इसलिए, यह अनुचित होगा कि पहला कारक, लेखक, पदार्थ, शुद्ध अहंकार, अंतिम, विशुद्ध विचार, तार्किक धारणा, अज्ञात, चेतनाहीन, अहंकार, विचार, या बड़ी हस्ती को पवित्र नामों की तरह प्रयोग करें। उनमें तनिक भी सौन्दर्य नहीं है और ईश्वर ने स्वयं का इस तरह वर्णन नहीं किया है। बल्कि, ईश्वर के नाम इंगित करते हैं उसके राजसी सौन्दर्य और संपूर्णता को। ईश्वर भूलता, सोता, या थकता नहीं है। वह अन्यायी नहीं है, और उसके कोई पुत्र, माता, पिता, भ्राता, सहयोगी, या सहायक नहीं हैं। वह पैदा नहीं हुआ, और जन्म नहीं देता। उसे किसी की जरूरत नहीं क्योंकि वह सम्पूर्ण है। उसे हमारे दुख दर्द "समझने" के लिये मनुष्य रूप लेने की जरूरत नहीं। ईश्वर सर्वशक्तिमान (अल-कवी), अतुलनीय (अल-'अहद), पश्चाताप स्वीकार करने वाला (अल-तव्वाब), दयालु (अर-रहीम), सदा-जीवी (अल-हय्य), सबको थामने वाला (अल- कय्यूम), सर्व-ज्ञाता (अल-अलीम), सब सुनने वाला (अस-समी’), सर्व-दृष्टा (अल-बसीर), क्षमादाता (अल-‘अफ़ुव), मददगार (अल-नसीर), और आरोग्यसाधक (अल-शाफ़ी) है।
दो सबसे अधिक पुकारे जाने वाले नाम हैं "दयालु" और "कृपालु।" मुस्लिम धर्म शास्त्र में एक अध्याय को छोड़कर सब अध्याय इस वाक्य से शुरू होते हैं, "ईश्वर का नाम लेकर, जो सबसे कृपालु, सबसे दयालु है।" हम कह सकते हैं, यह वाक्य मुस्लिमों द्वारा कहीं अधिक कहा जाता है, और इतना ईसाइयों की प्रार्थनाओं में पिता, बेटा, और पवित्र आत्मा का वाक्य नहीं सुना जाता। मुस्लिम ईश्वर का नाम लेकर शुरू करते हैं और खाते, पीते, पत्र लिखते समय, या कोई भी महत्वपूर्ण काम करते समय ईश्वर की दया और कृपा को याद करते हैं।
मनुष्य और ईश्वर के संबंधों में क्षमा एक महत्वपूर्ण पहलू है। मनुष्य कमज़ोर और पाप में आसानी से पड़ जाने वाले समझे जाते हैं, लेकिन ईश्वर अपनी कोमल दया के कारण क्षमा करने के लिये तैयार रहते हैं। पैगंबर मुहम्मद ने कहा है:
"ईश्वर की दया उसके क्रोध से बहुत बड़ी है।" (सहीह अल-बुखारी )
"सबसे दयालु" और "सबसे कृपालु," जैसे दिव्य नामों के साथ, "क्षमादाता" (अल-गफ़ुर), "अक्सर क्षमा करने वाला" (अल -गफ़्फ़ार), "पश्चाताप स्वीकार करने वाला" (अल-तव्वाब) और "क्षमादाता" (अल-‘अफ़ुव) जैसे नाम मुस्लिम प्रार्थनाओं में अधिक प्रयुक्त होते हैं।
टिप्पणी करें