ईश्वरीय आज्ञा में विश्वास
विवरण: पूर्वनियति के बारे में बहुधा पायी जाने वाली गलत धारणा, और ईश्वर के शाश्वत ज्ञान व शक्ति और मानव के कर्मों व भाग्य के बीच संबंध।
- द्वारा Imam Mufti
- पर प्रकाशित 04 Nov 2021
- अंतिम बार संशोधित 04 Nov 2021
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इस्लामी आस्था का छठा और अंतिम निबंध ईश्वरीय आज्ञा में विश्वास है जिसका अर्थ है कि सब कुछ अच्छा या बुरा, सुख या दुख के सभी क्षण, प्रसन्नता या पीड़ा, ईश्वर से आते हैं।
प्रथम, ईश्वर का पूर्वज्ञान अचूक है। ईश्वर इस संसार या इसके लोगों के प्रति तटस्थ नहीं है। वह बुद्धिमान और प्रेम करने वाला है, लेकिन इससे हमें भाग्यवादी नहीं बनना चाहिए कि हम अपने हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाएँ और कहें कि 'कोई प्रयास करने का मतलब ही क्या है?' ईश्वर का पूर्वज्ञान मानव को उसके उत्तरदायित्वों से मुक्त नहीं करता है। ईश्वर हमें उस कृत्य के लिए उत्तरदायी ठहराता है जो हम कर सकते हैं, जो हमारी क्षमताओं के भीतर होता है, उन चीजों के लिए वह हमें उत्तरदायी नहीं ठहराता जिन पर हमारा कोई बस नहीं। वह न्यायी है, और उसने हमें केवल सीमित उत्तरदायित्व दिए हैं, और वह उसी अनुसार हमारा निर्णय करता है। हमें सोच-समझ कर, योजना बनाकर सही चुनाव करना चाहिए, लेकिन कई बार चीजें वैसे नहीं घटित होती जैसा हम चाहते हैं, लेकिन हमें आशा नहीं छोड़नी चाहिए और मायूस नहीं होना चाहिए। हमें ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और पुनः प्रयास करने चाहिए। यदि फिर भी हमें वह प्राप्त नहीं होता जिसके लिए हमने प्रयास किया था तो हमें याद रखना चाहिए कि हमने यथासंभव प्रयास किया और परिणाम हमारे बस में नहीं हैं।
ईश्वर जानता है कि प्राणी क्या करेंगे, उससे कुछ नहीं छिपा। वह अपने शाश्वत पूर्वज्ञान के आधार पर, जो कुछ भी अस्तित्व में है, उसके बारे में पूर्णता और समग्रता में जानता है।
"सत्य है, पृथ्वी हो या आकाश, ईश्वर से कुछ छुपा नहीं है।" (क़ुरआन 3:5)
जो कोई इसे अस्वीकार करता है वह ईश्वर की पूर्णता को नकारता है, क्योंकि ज्ञान का विलोम या तो अज्ञान है या विस्मृति। इसका अर्थ होगा कि भविष्य की घटनाओं के बारे में अपने पूर्वज्ञान में ईश्वर त्रुटि कर सकता है; वह अब सर्वज्ञ नहीं रहेगा। दोनों ही कमियां हैं और ईश्वर में कमियां नहीं हो सकतीं वह इनसे से परे और मुक्त है।
द्वितीय, ईश्वर ने एक संरक्षित पट्ट (अरबी में अल-लौह अल-महफूज) पर वह सब कुछ अभिलेखित कर दिया है जो प्रलय और न्याय के दिन तक होगा। सभी मनुष्यों के जीवन काल लिखित हैं और उनके भरण-पोषण की मात्रा को निर्धारित कर दिया गया है। ब्रह्मांड में जो कुछ भी निर्मित होता है या घटित होता है, वह वहाँ अभिलिखित होता है। ईश्वर ने कहा है:
"क्या तुम नहीं जानते थे कि आकाशों और पृथ्वी में जो कुछ भी है, ईश्वर (सब) जानता है? यह (सब) एक अभिलेख में है। निश्चय ही ईश्वर के लिए सरल है।" (क़ुरआन 22:70)
तृतीय, ईश्वर जो चाहता है वही होता है, और जो ईश्वर नहीं चाहता वह नहीं होता है। ईश्वर की इच्छा के बिना आकाश में या पृथ्वी पर कुछ भी नहीं होता है।
चतुर्थ, ईश्वर हर वस्तु का निर्माता है।
"…उसने सब कुछ बनाया है, और उसके लिए सीमाएं और परिमाण निर्धारित किया है।" (क़ुरआन 25:2)
इस्लामी सिद्धांत में भौतिक और आध्यात्मिक जीवन, दोनों, में प्रत्येक मानवीय कार्य पूर्वनिर्धारित है, फिर भी यह मानना गलत है कि भाग्य का कार्य अंध, मनमाना और निष्ठुर है। मानवीय मामलों में दैवीय हस्तक्षेप को नकारे बिना मानव स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखा गया है। यह मनुष्य की नैतिक स्वतंत्रता और उत्तरदायित्व के सिद्धांत को नकारता नहीं है। सब ज्ञात है, लेकिन स्वतंत्रता भी दी गयी है।
मनुष्य कोई असहाय प्राणी नहीं है जो पूर्णतः नियति द्वारा चालित है। वरन्, प्रत्येक व्यक्ति अपने कृत्यों के लिए उत्तरदायी है। आलसी राष्ट्रों और जीवन के सामान्य मामलों के प्रति उदासीन व्यक्तियों को स्वयं को दोष देना चाहिए, ईश्वर को नहीं। मनुष्य नैतिक विधि का पालन करने के लिए बाध्य है; और वह उस विधि का उल्लंघन करने या उसका पालन करने पर समुचित दंड या पुरस्कार प्राप्त करेगा। हालाँकि, यदि ऐसा है, तो मनुष्य के पास विधि को तोड़ने या उसका पालन करने की क्षमता होनी चाहिए। जब तक हम इसे करने में सक्षम नहीं होते, ईश्वर हमें किसी चीज़ के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराता:
"ईश्वर किसी भी इंसान पर उतना बोझ नहीं डालता जितना वह सहन नहीं कर सकता है।" (क़ुरआन 2:286)
ईश्वरीय आज्ञा में विश्वास ईश्वर में विश्वास को सशक्त करता है। जब व्यक्ति यह जानता है कि ईश्वर ही सब कुछ नियंत्रित करता है, तब वह उस पर विश्वास करता है। भले ही व्यक्ति अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करता है, परन्तु साथ ही वह अंतिम परिणाम के लिए ईश्वर पर निर्भर करता है। उसकी कड़ी मेहनत या बुद्धिमत्ता उसे अहंकारी नहीं बनाती, क्योंकि उसको प्राप्त होने वाली प्रत्येक वस्तु का स्रोत ईश्वर है। अंततः, व्यक्ति को इस अनुभूति में मन की शांति प्राप्त होती है कि ईश्वर सर्व बुद्धिमान है और उसके कार्य ज्ञान द्वारा निर्धारित होते हैं। चीजें बिना प्रयोजन के नहीं होती हैं। यदि उसे कुछ मिलता है तो वह जानता है वह उसे मिलना ही था। अगर उसे कुछ नहीं मिलता तो भी वह जानता है कि यह उसके भाग्य में नहीं था। इस अनुभूति में व्यक्ति को गहन आंतरिक शांति प्राप्त होती है।
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