ईश्वर से प्रेम क्यों करें (2 का भाग 1)
विवरण: प्रेम क्या है और खुद से प्रेम करना कैसे प्रेम के स्रोत ईश्वर से प्रेम करने के लिए आवश्यक है।
- द्वारा Hamza Andreas Tzortzis (http://www.hamzatzortzis.com)
- पर प्रकाशित 04 Nov 2021
- अंतिम बार संशोधित 04 Nov 2021
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"कलम लिखने में बहुत शीघ्रता करती है, लेकिन जब बात प्रेम की आती है तो वो वह टूट जाती है।"[1]
रूमी सही थे। जब कलम को कागज पर रख के प्रेम के बारे में लिखना शुरू किया तो कलम दो टुकड़ों में टूट गई। प्रेम का वर्णन कर पाना लगभग असंभव है। प्रेम वास्तव में एक शक्तिशाली, अद्वितीय और अप्रतिरोध्य शक्ति या भावना है। जब हम अपने प्रेम का इजहार करने की कोशिश करते हैं, तो हमें सही शब्द खोजने में बहुत मुश्किल होती है। हम जिन भावों का उपयोग करते हैं, वे पूरी तरह से नहीं दर्शा पाते कि हमारे दिलों की गहराई में क्या है। इससे यह समझा जा सकता है कि क्यों हम प्रेम को शब्दों से बोलने के बजाय कर के दिखाते हैं। हम एक-दूसरे को गले लगाते हैं, अपने प्रियजनों के लिए उपहार खरीदते हैं, अपने साथी को फूलों का गुलदस्ता देते हैं, या उन्हें रोमांटिक डिनर के लिए बाहर ले जाते हैं। प्यार सिर्फ एक आंतरिक भावना नहीं है; यह जीने का और व्यवहार करने का एक तरीका है। मनोवैज्ञानिक एरिक फ्रॉम ने प्रेम को "एक कार्य बताया है, न कि एक निष्क्रिय प्रभाव।"[2]
अपने आप से प्यार करना, ईश्वर से प्यार करना
प्रेम कई प्रकार के होते हैं और इनमे से एक है अपने आप से प्रेम करना। इस प्रकार का प्रेम अपने जीवन को लम्बा करने की इच्छा, सुखी रहने और दर्द से बचने के साथ-साथ हमारी मानवीय जरूरतों और प्रेरणाओं को पूरा करने की आवश्यकता के कारण होता है। हम सभी में अपने लिए यह प्रेम स्वाभाविक है। अंतत: हम खुश और संतुष्ट रहना चाहते हैं। एरिक फ्रॉम ने तर्क दिया कि खुद से प्यार करना अभिमान या अहंकार का एक रूप नही है। बल्कि अपने आप से प्रेम करना खुद की देखभाल करने, जिम्मेदारी लेने और अपने लिए सम्मान रखने के बारे में है।
दूसरो से प्रेम करने के लिए खुद से प्रेम करना आवश्यक है। यदि हम खुद से ही प्यार नहीं कर सकते तो हम दूसरे लोगों से कैसे प्यार कर सकते हैं? हमारे लिए खुद से ज्यादा घनिष्ट कुछ भी नहीं है; अगर हम खुद की ही देखभाल और सम्मान नहीं कर सकते, तो हम दूसरों की देखभाल और सम्मान कैसे कर सकते हैं? खुद से प्यार करना 'आत्म-सहानुभूति' का एक रूप है। हम अपनी भावनाओं, विचारों और आकांक्षाओं से जुड़ते हैं। यदि हम खुद से ही नहीं जुड़ सकते हैं, तो हम दूसरो से कैसे सहानुभूति रख सकते हैं और कैसे जुड़ सकते हैं? एरिक फ्रॉम ने इस विचार का अनुवाद यह कहते हुए किया कि प्रेम का अर्थ है कि "खुद की ईमानदारी और विशिष्टता के लिए सम्मान, खुद की समझ के लिए प्यार को किसी अन्य व्यक्ति के लिए सम्मान और प्यार और समझ से अलग नहीं किया जा सकता है।"[3]
हालांकि दूसरो से प्यार करने के कारण, हम अपना त्याग और नुकसान कर सकते हैं, ये बलिदान हमेशा अधिक खुशी के लिए होते हैं। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति दूसरों को खिलाने के लिए खुद भूखा रहता है। ऐसे व्यक्ति को भूख का दर्द महसूस हुआ होगा; हालांकि उसे अधिक खुशी मिली होगी क्योंकि दूसरों को भूखा देखने का दर्द खुद के भोजन न करने के कारण होने वाली परेशानी से अधिक था। हालांकि इस तरह के बलिदान नकारात्मक माने जा सकते हैं, लेकिन अंततः ये अधिक खुशी के लिए हैं। एक गहरे इस्लामी दृष्टिकोण से देखें तो, खुद का त्याग करके दूसरों को संतुष्ट करना ही वह मार्ग है जो परम सुख की ओर ले जाता है। अपने साथी मनुष्यों के लिए बलिदान करने का ईश्वरीय आशीर्वाद और पुरस्कार परम शाश्वत आनंद यानि स्वर्ग है। इस तरह, इन बलिदानों को आध्यात्मिक निवेश के रूप में देखा जाना चाहिए न कि कुछ खोने के रूप में। संक्षेप में, खुद से प्रेम करने में दूसरों के लिए त्याग और कष्ट सहना शामिल हो सकता है, क्योंकि इससे अधिक खुशी और संतोष मिलेगा।
यदि किसी व्यक्ति का खुद को प्रेम करना आवश्यक है, तो उसे अपने बनाने वाले से भी प्रेम करना चाहिए। क्यों? क्योंकि ईश्वर प्रेम का स्रोत है। ईश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति के सुख और आनंद के लिए और दर्द से बचने के लिए शारीरिक साधन भी बनाये हैं। ईश्वर ने हमें हमारे जीवन का हर कीमती क्षण स्वतंत्र रूप से दिया है, फिर भी हम इन क्षणों को अपना नहीं बनाते हैं। महान धर्मशास्त्री अल-ग़ज़ाली ने ठीक ही समझाया है कि अगर हम खुद से प्यार करते हैं तो हमें ईश्वर से प्यार करना चाहिए:
"इसलिए, यदि खुद के लिए मनुष्य का प्रेम आवश्यक है, तो ईश्वर के लिए उसका प्रेम होना भी आवश्यक है, जिसके माध्यम से पहले उसे जीवन मिला, और बाद मे सभी आंतरिक और बाहरी गुण के साथ जीवन जीने की निरंतरता। जो कोई भी अपनी शारीरिक भूख से इतना प्रभावित होता है कि प्रेम की कमी के कारण वह अपने ईश्वर और सृष्टिकर्ता की उपेक्षा करता है, उसके पास ईश्वर का कोई प्रामाणिक ज्ञान नही होता; उसकी सोच सिर्फ उसकी लालसा और समझ की चीजों तक ही सीमित होती है।"[4]
ईश्वर का प्रेम सबसे पवित्र है
ईश्वर सबसे अधिक प्रेम करने वाला है। उसका प्रेम सबसे पवित्र है। इस कारण से कोई भी व्यक्ति उससे प्रेम करना चाहेगा, और उससे प्रेम करना पूजा का एक महत्वपूर्ण भाग है। कल्पना कीजिए कि अगर मैं आपको बताऊं कि एक व्यक्ति था जो अब तक का सबसे अधिक प्रेम करने वाला था, और कोई दूसरा प्रेम उसके प्रेम के बराबर नही था, तो आपमें उस व्यक्ति के बारे में जानने की तीव्र इच्छा होगी और अंततः आप उससे प्रेम भी करने लगेंगे। ईश्वर का प्रेम, प्रेम का सबसे पवित्र और सबसे महान रूप है; इसलिए कोई भी समझदार व्यक्ति ईश्वर से प्यार करना चाहेगा।
यह देखते हुए कि प्यार के अंग्रेजी शब्द के कई अर्थ हैं; इसलिए इस्लाम में ईश्वर के प्रेम को समझने का सबसे अच्छा तरीका है क़ुरआन में बताई गई ईश्वरीय प्रेम की परिभाषा: उनकी दया, उनकी विशेष दया और उनका विशेष प्रेम। इन शब्दों को समझने से और ये समझने से कि कैसे ये ईश्वरीय स्वाभाव से संबंधित हैं, हमारे हृदय ईश्वर से प्रेम करना सीख जायेंगे।
फुटनोट:
[1] मसनवी 1: 109-116
[2]फ्रॉम, इ. (1956)। दी आर्ट ऑफ़ लिविंग। न्यूयॉर्क: हार्पर एंड रो, पृ. 22.
[3] इबिड, पृ. 58-59.
[4] अल-ग़ज़ाली। (2011) अल-ग़ज़ाली ऑन लव, लोंगिंग, इंटिमेसी एंड कन्टेंटमेंट। एरिक ऑर्म्सबी द्वारा एक परिचय और नोट्स के साथ अनुवादित। कैम्ब्रिज: द इस्लामिक टेक्सट्स सोसाइटी, पृष्ठ 25.
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