यहोवा के साक्षी कौन हैं? (भाग 3 का 1): इसाई या किसी धर्म-विशेष के सदस्य?
विवरण: यहोवा के साक्षियों का इतिहास।
- द्वारा Aisha Stacey (© 2012 IslamReligion.com)
- पर प्रकाशित 04 Nov 2021
- अंतिम बार संशोधित 04 Nov 2021
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2011 में यह अनुमान लगाया गया था कि 200 से अधिक देशों में 1 लाख 9 हज़ार से अधिक धार्मिक समूहों में करीब 76 लाख से अधिक यहोवा के साक्षी मौजूद थे।[1] जैसा कि नाम से पता चलता है, यह ईसाई धर्म से जुड़ा हुआ है। इसके सदस्य, जो कि पुरुष एवं महिला और सभी उम्र के होते हैं, सक्रिय रूप से लोगों के घर-घर जाते हैं और अपने समुदायों में लोगों के साथ बाइबल के अपने संस्करण को साझा करने का प्रयास करते हैं।आपने उन्हें अपने समुदाय में उन्हें देखा होगा; आम तौर पर ये छोटे परिवारिक समूह होते हैं, सभी शालीनता भरे कपड़े पहनते हैं। वे दरवाज़े पर दस्तक देते हैं या घंटियां बजाते हैं और साहित्य बांटते हैं और आपको जीवन के बड़े सवालों पर विचार करने के लिए आमंत्रित करते हैं, जैसे कि, आप बीमारी और गरीबी के बगैर दुनिया में कैसे रहना चाहेंगे? यहोवा के साक्षियों को धर्मांतरण करने वाले मॉर्मन के साथ जोड़कर भ्रमित नहीं होना चाहिए, वे आमतौर पर युवा पुरुषों के जोड़े होते हैं जो काले सूट पहने होते हैं। 2012 तक यहोवा के साक्षी इस प्रकार की धर्म प्रचार संबंधी गतिविधियों में करीब 1.7 अरब घंटे बिता चुके थे और 70 करोड़ से अधिक पत्रिका एवं किताबें वितरित कर चुके थे।[2]
यहोवा के साक्षी इस पृथ्वी पर ऐसी चीज़ के साथ असहयोग की शिक्षा देते हैं जिन्हें वे शैतान की शक्ति के रूप में देखते हैं, और यह, किसी भी झंडे को सलामी देने या युद्ध के किसी भी प्रयास में सहायता करने से इनकार करने की शिक्षा होती है, जिसके चलते पड़ोसियों और सरकारों के साथ उन्हें संघर्ष करना पड़ा और इसने उन्हें कई देशों में काफी अलोकप्रिय बना दिया है। ख़ासतौर से उत्तरी अमेरिका और पूरे यूरोप में 1936 में समस्त अमरीका में मौजूद यहोवा के साक्षी बच्चों को स्कूलों से निकाल दिया गया और अक्सर उन्हें अनाथालय में रखा गया।दूसरे विश्व युद्ध के दौरान यहोवा के साक्षियों पर भारी ज़ुल्म ढाए गए। नाज़ी दौर के जर्मनी में उनपर बेहद ज़ुल्म ढाहे गए और हज़ारों लोग बंदी शिविरों में मारे गए। 1940 में कनाडा में और 1941 में ऑस्ट्रेलिया में धर्म पर प्रतिबंध लगा दिया गया। कुछ सदस्यों को जेल में डाल दिया गया और अन्य को श्रमिक शिविरों में भेज दिया गया। धर्म विरोधियों ने दावा किया कि साक्षियों ने इस सिद्धांत को साबित करने के लिए शहादत का जानबूझकर रास्ता चुना, जिसमें दावा किया गया था कि जो लोग ईश्वर को खुश करने के लिए संघर्ष करते हैं उन्हें सताया जाएगा[3]।
हालांकि वे किसी संकीर्ण या गुप्त धर्म का हिस्सा नहीं हैं, हम में से बहुत से लोग यहोवा के साक्षियों के बारे में बहुत कम जानते हैं। वे दरअसल खुद को 1870 में अमेरिका के पेंसिल्वेनिया से अपनी उत्पत्ति को जोड़ते हैं, जब चार्ल्स टेज़ रसेल (1852-1916) ने एक बाइबल अध्ययन समूह का आयोजन किया था। इस समूह के गहन पाठ, सदस्यों को कई पारंपरिक ईसाई मान्यताओं को अस्वीकार करने के लिए प्रेरित करते हैं। 1880 तक, सात अमेरिकी राज्यों में 30 धार्मिक समूह बन चुके थे। इन समूहों को वॉच टावर और बाद में वॉचटावर बाइबल एंड ट्रैक्ट सोसाइटी के नाम से जाना जाने लगा। 1908 में रसेल ने अपना मुख्यालय ब्रुकलिन, न्यू यॉर्क में स्थानांतरित कर दिया जहां यह आज भी वह मौजूद है। 1931 में जोसफ फ्रैंकलिन रदरफोर्ड के नेतृत्व में इस समूह का नाम "यहोवा के साक्षी" के रूप में रखा गया।
यहोवा यहूदी धर्मग्रंथों में मौजूद ईश्वर के नाम का अंग्रेजी अनुवाद है और रदरफोर्ड ने इस नाम को बाइबल के एक अंश, यशायाह 43:10 से लिया है। यहोवा की साक्षी बाइबल, जिसे न्यू वर्ल्ड ट्रांसलेशन के नाम से जाना जाता है, इस मार्ग का अनुवाद इस प्रकार से करती है, “‘तुम मेरे गवाह हो,’ यहोवा का कथन है, ‘यहां तक कि मेरा सेवक जिसे मैंने चुना है. . . ,’”। यहोवा के साक्षी 19वीं सदी की पेन्सिलवेनिया से एक छोटी सी शुरुआत को लेकर आगे बढ़ते हुए 21वीं सदी में आकर एक वैश्विक संगठन बन गए हैं जो वॉच टावर सोसाइटी के बहुराष्ट्रीय संचालनों के द्वारा समर्थित हैं। इस मुहिम से संबंधित पत्रिकाओं, पुस्तकों और पैम्फलेटों के प्रकाशन और वितरण पर सोसायटी की दृढ़ता को तकनीकी नवाचारों का भी लाभ प्राप्त हुआ[4]। इसके बावजूद दुनिया भर में यहोवा के साक्षियों को बदनाम किया जा रहा है और सताया जा रहा है।
गैर ईसाई यह मानते हैं कि यहोवा के साक्षी ईसाई धर्म का ही एक अलग हिस्सा है और यहोवा के साक्षी स्वयं को एक ईसाई संप्रदाय कहते हैं, हालांकि दुनिया भर के कई ईसाई इस बात से असहमति जताते हैं। कुछ लोग तो इतने आवेगपूर्ण रूप से असहमति जताते हैं कि कई देशों में सरकारी नीति बनाकर यहोवा के साक्षियों को प्रताड़ित करना शुरू किया गया है। कनाडा के संगठन “रिलिजियस टॉलरेंस” को यहोवा के साक्षी के संदर्भ में ईसाई शब्द के प्रयोग पर आपत्ति जताने वाले इतने ईमेल प्राप्त होते हैं कि उनकी वेब साइट पर एक चेतावनी तक जारी किया गया है। “कृपया हमें अपमानजनक ईमेल न भेजें... यह वेबसाइट किसी भी प्रकार से आधिकारिक तौर पर यहोवा की साक्षी को नहीं दर्शाता है।” इस समूह, धर्म, संप्रदाय या गुट से जुड़ी ऐसी क्या बात है जो लोगों को नाराज करती है?
उन्हीं की शब्दों में कहें तो, यहोवा के साक्षी खुद को एक प्रकार के विश्वव्यापी भाईचारे के रूप में देखते हैं जो किसी राष्ट्रीय सीमा तथा किसी राष्ट्रीय एवं जातीय निष्ठा से परे है। उनका मानना है कि चूंकि ईसा मसीह ने घोषणा की थी कि इस दुनिया का कोई भी प्रांत उनका राज्य नहीं है और उन्होंने एक अस्थायी ताज को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था, इसीलिए लोगों को भी दुनियादारी से अलग रहना चाहिए और राजनीतिक भागीदारी से बचना चाहिए।[5]
यहोवा के साक्षियों की मान्यताओं का एक बहुत ही संक्षिप्त अवलोकन एक ऐसे समूह की तस्वीर को चित्रित करता हुआ प्रतीत होता है जो इस्लाम के समान मान्यता रखता है। वे एक ईश्वर में विश्वास करते हैं और स्पष्ट रूप से त्रित्व (ट्रिनिटी) के सिद्धांत के विरोधी हैं। समलैंगिकता एक गंभीर पाप है, उनके बीच लिंग भूमिकाओं को बेहद स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है, वे मूर्तिपूजक मान्यताओं से पैदा होने वाले उत्सवों से बचते हैं, और वे उन सभी प्रकार के सरकारों के प्रति निष्ठा रखने का विरोध करते हैं जो ईश्वर के बताए नियमों पर आधारित नहीं है।तो क्या यह इस्लाम है? क्योंकि इस दृष्टिकोण से देखें तो यह निश्चित रूप से ईसाई धर्म तो नहीं नज़र आता है जैसा कि आमतौर पर समझा जाता है।
अगर हम यहूदियों की मान्यताओं पर थोड़ा गहराई से गौर करते हैं तो हम पाते हैं कि प्रारंभिक मामलों के एक समान होने के बावजूद इस्लाम के साथ उनके बीच बहुत कम समानताएं मौजूद हैं, सिवाय इसके कि ये दोनों ही एक ऐसा धर्म है जो अपने सदस्यों से एक बड़ी प्रतिबद्धता की अपेक्षा करता है। उनकी मान्यताओं के पीछे मौजूद ज़बरन तर्क करने की आदत इस संसार की अवधारणाओं के प्रति उनकी त्रुटिपूर्ण समझ को दर्शाता है जिसे मुसलमान अच्छे से जानते हैं। उनकी मान्यताओं में भी “एंड टाइम्स या एंड ऑफ डेज़” (क़यामत) के बारे में बहुत सी जानकारी मौजूद है। उन्होंने कई मौकों पर कहा है कि दुनिया का अंत जैसा कि हम जानते हैं कि काफी निकट था, हालांकि ये तारीखें आकर चली भी गई और एक चौंकाने वाला घटना तक नहीं घटा।
भाग 2 में हम यहोवा के साक्षियों की अंत समय (क़यामत) के सिद्धांतों और तारीखों पर गहराई से विचार करेंगे, फिर हम इसकी तुलना बाइबल और इस्लाम में मौजूद एंड ऑफ डेज़ (क़यामत) की मान्यताओं से करेंगे। हम उन मान्यताओं पर भी गौर करेंगे जो इस्लाम की मान्यता से मिलती-जुलती प्रतीत होती हैं और उन अवधारणाओं पर प्रकाश डालती है जो प्रमुख रूप से ईसाइयों और मुसलमानों दोनों के लिए अस्वीकार्य हैं।
फुटनोट:
[1] (http://www.watchtower.org/e/statistics/worldwide_report.htm)
[2] (http://www.religioustolerance.org/witness.htm)
[3] बारबरा ग्रिज़ुटी हैरिसन, विज़न ऑफ़ ग्लोरी, 1978, चैप्टर 6.
[4]http://www.patheos.com/Library/Jehovahs-Witnesses/Historical-Development.html
[5] जीन ओवेंस; नीमेन रिपोर्ट्स, फॉल 1997. (http://www.bbc.co.uk/religion/religions/witnesses/beliefs/beliefs.shtml)
यहोवा के साक्षी कौन हैं? (भाग 3 का 2): एंड ऑफ़ डेज़ (क़यामत)
विवरण: यहोवा के साक्षी एक ऐसी घटना की भविष्यवाणी करते हैं जिसे ईश्वर ने केवल स्वयं को ज्ञात घोषित किया है।
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यहोवा के साक्षी (JW) 200 से अधिक देशों में मौजूद अपने सदस्यों के साथ एक वैश्विक धर्म का दरजा रखते हैं। यह एक ईसाई संप्रदाय है, लेकिन कई प्रमुख ईसाई संप्रदाय यहोवा के साक्षियों की मान्यताओं पर कड़ी आपत्ति जताते हैं। ऑर्थोडॉक्स प्रेस्बिटेरियन चर्च के अनुसार, “यहोवा के साक्षी एक बनावटी-ईसाई धर्म को मानते हैं। इसका मतलब है कि ये लोग ईसाई होने का दिखावा करते हैं, पर असल में वे ईसाई नहीं होते हैं। उनकी शिक्षा एवं व्यवहार पवित्रशास्त्र के अनुरूप नहीं हैं।”[1]
भाग 1 में हमने यहोवा के साक्षियों के धर्म के इतिहास के बारे में थोड़ा बहुत ज्ञान हासिल किया और पाया कि वे तुलनात्मक रूप से एक नए धर्म का हिस्सा थे, जिसका गठन 1870 में हुआ था। साथ ही हमने उनकी मान्यताओं और एंड ऑफ़ डेज़ (क़यामत) के सिद्धांतों के प्रति उनकी शिक्षा पर संक्षेप में उल्लेख भी किया था और अब भाग 2 में हम उस एंड ऑफ़ डेज़ (क़यामत) की भविष्यवाणियों के बारे में गहराई से जानेंगे जो कि घटित नहीं हुई हैं।
एंड ऑफ़ डेज़ (क़यामत) का अध्ययन, जिसे अधिक सही ढंग से युगांतशास्त्र कहा जाता है, यहोवा के साक्षियों के विश्वास का केंद्र है। इसकी उत्पत्ति नेल्सन होरेशियो बारबोर, जो कि एक प्रभावशाली एडवेंटिस्ट लेखक और प्रकाशक थे और जो चार्ल्स टेज़ रसेल के साथ अपने करीबी संबंध और बाद में विरोध के लिए जाने जाते थे, उन्हीं के द्वारा समर्थित मान्यताओं से निकलता हुआ प्रतीत होता है। नीचे यहोवा के साक्षियों के मूल युगांतशास्त्रीय मान्यताओं का संक्षिप्त विवरण मौजूद है जैसा कि उनकी वेब साइट पर बताया गया है।
“नेल्सन एच. बारबोर से जुड़े दूसरे एडवेंटिस्टों ने 1873 में और बाद में 1874 में ईसा मसीह के प्रकट होने और उनके भव्य वापसी की उम्मीद की थी। वे अन्य एडवेंटिस्ट समूहों की मान्यताओं से सहमत थे कि “अंत का समय" (जिसे “अंतिम दिन (क़यामत का दिन)” भी कहा जाता है) उसकी शुरुआत 1799 में हो गई थी। 1874 की निराशा के तुरंत बाद, बारबोर ने इस विचारधारा को स्वीकार कर लिया कि ईसा मसीह दरअसल 1874 में ही पृथ्वी पर लौट आए थे, मगर अदृश्य रूप से वर्ष 1874 को मानव इतिहास के 6,000 वर्षों का अंत और ईसा मसीह द्वारा न्यायिक समय की शुरुआत माना जाता था। चार्ल्स टेज़ रसेल और उनके समूह के लोग जिसे बाद में “बाइबल के विद्यार्थियों” के रूप में जाना गया, उन्होंने बारबोर के इन विचारों को स्वीकार किया।”[2]
"आर्मगेडन (अच्छाई और बुराई के बीच होने वाली निर्णायक लड़ाई) 1914 में घटित होने वाली थी। 1925–1933 तक, वॉचटावर सोसाइटी ने 1914, 1915, 1918, 1920, और 1925 में आर्मगेडन के आने की अपेक्षाओं को लेकर विफलता हाथ लगने के बाद अपने विश्वासों को मौलिक रूप से बदल लिया। 1925 में, वॉचटावर सोसाइटी ने एक बड़े बदलाव का घोषणा किया, यह कि ईसा मसीह को 1878 के बजाय 1914 में स्वर्ग का राजा बनाकर पेश किया गया था। 1933 तक, स्पष्ट रूप से यही सीख दी जाती थी कि मसीह अदृश्य रूप से 1914 में ही लौट आए थे और "अंतिम दिन" भी शुरू हो गया था।"[3]
ये विचार मौजूदा दौर के यहोवा के साक्षियों के विचार से बिल्कुल भी मेल नहीं खाते हैं और बड़ी ही हैरानी की बात है कि उन्हें अपनी मान्यताओं में हुए इन बड़े और महत्वपूर्ण बदलावों के बाद भी कोई समस्या नहीं है। यहोवा के साक्षियों की युगांतशास्त्र में 1914 का समय शायद सबसे महत्वपूर्ण तारीख है। यह रसेल द्वारा बताई आर्मगेडन (अच्छाई और बुराई के बीच होने वाली निर्णायक लड़ाई) के आने की पहली अनुमानित तारीख थी[4], मगर जब ऐसा नहीं हो सका तो इसमें संशोधन किया गया कि “1914 में जीवित लोग आर्मगेडन के समय भी जीवित रहेंगे”; हालांकि 1975 आते-आते वे लोग वृद्ध नागरिक हो चुके थे।
“1960 और 1970 के शुरूआती दशकों में, कई साक्षियों को उनके साहित्य में मौजूद लेखों की मदद से प्रेरित किया जाता था और 1975 से पहले उनकी सभाओं में वक्ताओं द्वारा प्रोत्साहित करने के लिए इसी का उपयोग किया जाता था ताकि लोग इस बात पर विश्वास करें कि आर्मगेडन और ईसा मसीह के हज़ार साल का सहस्राब्दी शासन 1975 से शुरू होगा। हालांकि आर्मगेडन और 1975 में शुरू हुई ईसा मसीह की सहस्राब्दी के विचार को वॉच टावर सोसाइटी के द्वारा कभी भी पूरी तरह या स्पष्ट रूप से समर्थन नहीं दिया गया, मगर फिर भी संगठनों में मौजूद कई लेखन विभाग के लोग, साथ ही साथ संगठन के कई प्रमुख साक्षी, एल्डर्स और प्रिसाइडिंग ओवरसियरों ने भारी मत से यह सुझाव दिया कि ईसा मसीह का सहस्राब्दी शासनकाल पृथ्वी पर वर्ष 1975 तक शुरू हो जाएगा।”
1975 के आते-आते यहोवा के बहुत से साक्षियों ने अपने घर बेच दिए, अपनी नौकरी छोड़ दी, जल्दबाजी में अपनी बचत की गई कमाई को खर्च कर दिया या अपने ऊपर हजारों डॉलर का कर्ज जमा कर लिया। हालांकि, वर्ष 1975 उसी पर से बीत गया जैसे हर साल बीतता था। इस वर्ष भी किसी प्रकार की घटना न होने के बाद, बहुत से लोगों ने यहोवा के साक्षी संगठन को छोड़ दिया और अपने स्वयं के स्रोतों के अनुसार, संख्या के ठीक होने और फिर से बढ़ने से पहले इसे वर्ष 1979 होने घटने वाला बताया। साक्षियों ने आधिकारिक तौर पर कहा कि आर्मगेडन (अच्छाई और बुराई के बीच होने वाली निर्णायक लड़ाई) तब आएगा जब वर्ष 1914 को गुज़ारने वाली पीढ़ी जीवित रहेगी। 1995 तक, 1914 के दौर में मौजूद सदस्य जो कि अब तक जीवित थे, उनकी तेजी से घटती आबादी को देखते हुए, यहोवा के साक्षियों को आधिकारिक तौर पर अपनी सबसे विशिष्ट अवधारणाओं में से एक को त्यागने पर मजबूर होना पड़ा।
वर्तमान में साक्षियों का तर्क है कि 1914 एक महत्वपूर्ण वर्ष है, जो “अंत के दिनों” यानि क़यामत के शुरुआत का प्रतीक है। लेकिन वे अब "अंत के दिनों (क़यामत)" के ख़त्म होने की कोई समयसीमा निर्दिष्ट नहीं करते हैं, बल्कि अब यह कहना पसंद करते हैं कि एक ऐसी पीढ़ी जो 1914 से जीवित है वह आर्मगेडन (अच्छाई और बुराई के बीच होने वाली निर्णायक लड़ाई) को देखने वाली हो सकती है। ऐसा माना जाता है कि आर्मगेडन के दौर में परमेश्वर द्वारा इस दुनिया में मौजूद सभी सरकारों का ख़ात्मा कर दिया जाएगा, और आर्मगेडन के बाद, ईश्वर पृथ्वी के वासियों को शामिल करने के लिए अपने स्वर्गीय राज्य का विस्तार करेगा।[5]
यहोवा के साक्षियों का मानना है कि मरे हुओं को धीरे-धीरे एक हजार साल तक चलने वाले “न्याय के दिन” यानि आख़ेरत के दिन पुनर्जीवित किया जाएगा और उस दिन वह न्याय पुनर्जागरण के बाद उनके कार्यों पर आधारित होगा, न कि पिछले कर्मों पर। हज़ार वर्षों के अंत में, एक आखरी परीक्षा लिया जाएगा जब पूर्ण मानवजाति को गुमराह करने के लिए शैतान को वापस लाया जाएगा और उस आखिरी परीक्षा का परिणाम पूरी तरह से परखे हुए, महिमायुक्त मानव जाति के लोग होंगे।[6]
“अंत के दिनों” की इस व्याख्या की तुलना इस्लाम से किस प्रकार की जाती है? सबसे महत्वपूर्ण और स्पष्ट अंतर यह है कि इस्लाम ऐसी किसी तारीख की भविष्यवाणी नहीं करता है कि क़यामत का दिन कब आएगा और न ही वह पुनरुत्थान के दिन की तारीख की भविष्यवाणी करता है, केवल ईश्वर ही जानता है कि यह कब होगा।
लोग आपसे क़यामत के बारे में पूछते हैं, कह दीजिए कि उसका ज्ञान तो मात्र ईश्वर के पास है'। (क़ुरआन 33:63)
निःसंदेह कियामत आने वाली है। मैं उसको छिपाये रखना चाहता हूं ताकि प्रत्येक व्यक्ति को उसके किये का बदला मिले। (क़ुरआन 20:15)
"कह दो कि ईश्वर के अतिरिक्त, आकाशों और धरती में कोई परोक्ष का ज्ञान नहीं रखता। और वह नहीं जानते कि वह कब उठाये जायेंगे।" (क़ुरआन 27:65)
एक और स्पष्ट अंतर अंत के दिन (क़यामत) की अवधारणा को लेकर है, जबकि ईसाई और कृत्रिम ईसाई अच्छाई और बुराई के बीच एक अंतिम लड़ाई में यकीन रखते हैं, जिसे आर्मगेडन के नाम से जाना जाता है, इस्लाम में ऐसी कोई बात नहीं है। इस्लाम सिखाता है कि यह वर्तमान दुनिया एक निश्चित शुरुआत के साथ बनाई गई थी और इसका एक निश्चित अंत होगा जो युगांतिक घटनाओं के निर्धारित समय होगा। इन घटनाओं में ईसा की वापसी शामिल है। ऐतिहासिक समय समाप्त हो जाएगा और उसके बाद सभी मानव जाति के लिए पुनरुत्थान और अंतिम न्याय का वक्त आएगा।
भाग 3 में हम अन्य मान्यताओं पर चर्चा करेंगे जो इस्लाम की मान्याताओं के समान प्रतीत होती हैं लेकिन मुसलमानों के द्वारा स्वीकार्य कोई बुनियादी अवधारणा नहीं है। हम इस बात पर भी मोटे तौर पर नज़र डालेंगे कि क्यों इनमें से कुछ मान्यताओं ने कई ईसाई संप्रदायों को यहोवा के साक्षियों के समूह को एक ईसाई संप्रदाय होने के दावे को अस्वीकार करने के लिए प्रेरित किया है।
फुटनोट:
[1] (http://www.opc.org/qa.html?question_id=176)
[2] (http://www.watchtowerinformationservice.org/doctrine-changes/jehovahs-witnesses/#8p1)
[3] Ibid.
[4] अच्छाई और बुराई के बीच होने वाली आखरी निर्णायक लड़ाई जिसकी सूचना अधिकांश ईसाई संप्रदाय देते हैं।
[5]द वॉचटावर, विभिन्न संस्करण, मई 2005, मई 2006 और अगस्त 2006 के संस्करण सहित।
[6] Ibid.
यहोवा के साक्षी कौन हैं? (भाग 3 का 3): त्रुटि से भरी मूल अवधारणा
विवरण: यहोवा के साक्षियों की मान्यताएं और इस्लाम की एक संक्षिप्त तुलना।
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यहोवा का साक्षी (JW's) एक ईसाई संप्रदाय है, जिसमें कई मान्यताएं शामिल हैं जो प्रमुख ईसाई संप्रदायों से अलग है। वे अपने शक्तिशाली इंजीलवाद, एंड ऑफ़ डेज़ (क़यामत) तक उनकी व्यस्तता और बाइबल के अपने अनोखे अनुवाद के लिए जाने जाते हैं जिसे द न्यू वर्ल्ड ट्रांसलेशन ऑफ द होली स्क्रिप्चर्स कहा जाता है। हमारे अध्ययन के निष्कर्ष से जुड़े इस लेख में हम यहोवा के साक्षी के रूप में ज्ञात इस धर्म की कुछ ऐसी मान्यताओं पर एक नज़र डालेंगे जो इस्लाम के समान प्रतीत होते हैं।
यहोवा के साक्षियों का यह मानना है कि ईसा ईश्वर नहीं हैं। यह एक ऐसा कथन है जो ज़्यादातर ईसाइयों को क्रोधित करता है और कई लोगों ने इसके चलते यहोवा के साक्षियों को दिखावटी-ईसाई घोषित किया है। मुसलमान, जैसा कि हम जानते हैं, स्पष्ट रूप से मानते हैं कि ईसा ईश्वर नहीं हैं, इसलिए इस एक छोटे से कथन को पढ़ने से एक मुसलमान यह कह सकता है, "ओह, ये लोग तो हमारे जैसे ही हैं"। पर क्या वाकई? आइए हम ईसा की भूमिका के बारे में उनकी आस्थाओं पर गहराई से नज़र डालते हैं।
यहोवा के साक्षी ट्रिनिटी की मूर्तिपूजन का निंदा करते हैं और तदनुसार ईसा की ख़ुदाई को नकारते हैं। हालांकि उनका मानना है कि भले ही ईसा ईश्वर के पुत्र हैं, वह ईश्वर से छोटे हैं। इस प्रकार इस्लाम से समानता अचानक समाप्त हो जाती है। ईश्वर क़ुरआन के सबसे मशहूर आयतों में से एक में कहता है कि उसकी कोई संतान नहीं है!
कहो (मुहम्मद): “वह ईश्वर एक है। ईश्वर निरपेक्ष (और सर्वाधार) है। न उसकी कोई संतान है और न वह किसी की संतान। और कोई उसके समकक्ष नहीं।” (क़ुरआन 112)
ईश्वर के बारे में इस त्रुटि भरी बुनियादी समझ के अलावा, यहोवा के साक्षी अन्य अपमानजनक (ख़ासतौर से मुसलमानों के लिए) दावों पर भी विश्वास करते हैं। वे ईसा के मृत्यु का दावा करते हैं, या यहोवा के साक्षी यह मानते हैं कि उन्होंने मानवजाति को पाप और मृत्यु से बचाने के लिए "फिरौती" के रूप में अपना बलिदान दे दिया। उनका मानना है कि ईश्वर ने स्वर्ग में और पृथ्वी पर सारा कुछ मसीह के ज़रिए बनवाया, जो उनका "मास्टर कारीगर," ईश्वर का सेवक था।[1] अपने स्वयं के साहित्य में यहोवा के साक्षी ने ईसा को "उनकी (ईश्वर की) पहली रूह की रचना, मास्टर शिल्पकार, मानव-पूर्व ईसा " के रूप में संदर्भित किया है[2]। वे आगे कहते हैं कि ईश्वर द्वारा ईसा के पुनर्जीवन के बाद, वह एक फ़रिश्ते से भी ऊंचे स्तर पर "महान" बताए गए थे। इसका खंडन क़ुरआन में ईश्वर के अपने शब्दों में मिलता है।
“वह आकाशों और पृथ्वी का रचयिता है। उसका कोई बेटा कैसे हो सकता है जबकि उसकी कोई पत्नी नहीं। और उसने हर चीज़ को पैदा किया है और वह हर चीज़ का जानने वाला है। यह है ईश्वर तुम्हारा पालनहार है। उसके अतिरिक्त कोई उपास्य नहीं। वही हर चीज़ का रचयिता है, अतः तुम उसी की उपासना करो। और वह हर चीज़ का भार धारक है।” (क़ुरआन 6:101-102)
यह विचार कि ईसा हमारी आत्माओं को बचाने या हमारे पापों को माफ़ करवाने के लिए फिरौती के रूप में अपनी जान दे दी थी, पूरी तरह से इस्लामी मान्यताओं के सामने एक सरासर बेवकूफी भरी अवधारणा है।
“ऐ किताब वालों (यहूदी व ईसाई) अपने दीन (धर्म) में अतिशयोक्ति न करो और ईश्वर के संबंध में कोई बात सत्य के अतिरिक्त न कहो। मरियम के बेटे ईसा तो मात्रा ईश्वर के एक रसूल (सन्देष्टा) और उसका एक कलिमा (वाक्य) हैं जिसको उसने मरियम की ओर भेजा और उसकी ओर से एक आत्मा हैं। अतः ईश्वर और उसके रसूलों (सन्देष्टाओं) पर ईमान लाओ और यह न कहो कि ईश्वर तीन हैं। बाज़ आ जाओ, यही तुम्हारे लिए बेहतर है। उपास्य तो मात्रा एक ईश्वर ही है। वह पवित्रा है कि उसके सन्तान हो। उसी का है जो कुछ आकाशों में है और जो कुछ धरती पर है और ईश्वर ही काम बनाने के लिए पर्याप्त है।” (क़ुरआन 4:171)
मूल पाप ने मनुष्यों को मृत्यु और पाप का उत्तराधिकारी बना दिया, यह धारणा इस्लाम की शिक्षाओं के भी उलट है। इस्लाम हमें सिखाता है कि मनुष्य बिना पाप के पैदा होता है और स्वाभाविक रूप से केवल ईश्वर (बिना किसी बिचौलियों के) की इबादत करने के लिए इच्छुक होता है। पापरहितता की इस स्थिति को बनाए रखने के लिए मानवजाति को ईश्वर के हुक्म का पालन करने और एक धर्मी जीवन जीने का प्रयास करने की आवश्यकता है। अगर कोई व्यक्ति पाप कर बैठता है, तो उसे बस सच्चे पश्चाताप की आवश्यकता होती है। जब कोई व्यक्ति पश्चाताप करता है, तो ईश्वर पाप को ऐसे मिटा देता है जैसे उसने कभी वह पाप किया ही नहीं था।
यहोवा के साक्षी मानते हैं कि मृत्यु के बाद कोई भी आत्मा नहीं रहती है और ईसा मरे हुए लोगों को फिर से जीवित करने के लिए लौटेगें, आत्मा और शरीर दोनों को पुनर्जीवित करेगें। न्याय धर्मी लोगों को पृथ्वी पर अनंत जीवन दिया जाएगा (जो तब स्वर्ग बन जाएगा)। जिन्हें अधर्मी घोषित किया जाएगा उन्हें कोई पीड़ा नहीं दी जाएगी, लेकिन उनकी ज़िंदगी का अंत वहीं हो जाएगा और उनका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। इस्लाम इस बारे में असल में क्या कहता है?
इस्लाम के अनुसार, शव को दफनाने के बाद भी कब्र में ज़िंदगी जारी रहती है। एक ईमानदार इंसान की आत्मा, शरीर से आसानी से निकल जाती है, उन्हें एक स्वर्गीय और मीठे सुगंधित वस्त्र पहनाए जाते हैं और सात स्वर्गों से होकर ले जाया जाता है। अंत में आत्मा को कब्र में लौटा दिया जाता है, और उस व्यक्ति के लिए स्वर्ग का द्वार खोल दिए जाते हैं, और स्वर्ग की हवाएं उसकी ओर बहती हैं, और वह उसकी सुगंध को महसूस करता है। उसे स्वर्ग की खुशखबरी सुनाई जाती है और वह क़यामत के शुरू होने का इंतज़ार करते हैं। दूसरी ओर, विश्वासघाती इंसान की आत्मा को उसके शरीर से बहुत ही संघर्ष के साथ निकाला जाता है, लेकिन आखिर में शरीर में वापस चला जाता है। क़यामत शुरू होने तक व्यक्ति को कब्र में यातना दी जाती है।
“उस दिन वज़नदार (प्रभावी) केवल सत्य होगा। अतः जिनकी तौलें भारी होंगी, वही लोग सफल घोषित होंगे। और जिनकी तौलें हल्की होंगी वही लोग हैं जिन्होने अपने आप को घाटे में डाला, क्योंकि वह हमारे प्रतीकों के साथ अन्याय करते थे।” (क़ुरआन 7:8-9)
उनके श्रेय के लिए यहोवा के साक्षी उन हरकतों से अनदेखा करते हैं जो ईश्वर नापसंद करते हैं, जिसमें झूठे धर्मों से उत्पन्न होने वाले जन्मदिन और छुट्टियों का जश्न मनाना शामिल है। यहोवा के साक्षी अपना ख़ुद का जन्मदिन नहीं मनाते हैं, क्योंकि इसे रचयिता के बजाय व्यक्ति की महिमा माना जाता है। ये कथन निश्चित रूप से इस्लामी मान्यता के अनुरूप है। हालांकि, क्योंकि यहोवा के साक्षियों का ईश्वर एक है वाली मूल अवधारणा में त्रुटि है इस वजह से उनके नैतिक व्यवहार और मान्यताओं के मायने बहुत कम रह जाते हैं। ईश्वर हमें क़यामत के दिन पर सबसे असफल लोगों के बारे में स्पष्ट रूप से बताता है।
“क्या मैं तुमको बता दूं कि अपने कर्मों के अनुसार सबसे अधिक घाटे में कौन लोग हैं। वह लोग जिनके प्रयास सांसारिक जीवन में व्यर्थ हो गये और वह समझते रहे कि वह बहुत अच्छे कर्म कर रहें हैं। यही लोग हैं जिन्होंने अपने पालनहार की निशानियों को और उससे मिलने को झुठलाया। अतः उनका किया हुआ नष्ट हो गया।” (क़ुरआन 18:103-105)
इस तरह हमें पता चलता है कि भले ही पहली नज़र में यहोवा के साक्षियों के पास एक बनी-बनाई आस्था प्रणाली नज़र आती है जो इस्लामी मान्यताओं के अनुरूप लगता है, मगर यह सच्चाई से बहुत दूर है। सावधानीपूर्वक विचार करने से उनके मूल सिद्धांतों में दोषों और गलतियों का पता चलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यहोवा के साक्षियों के धर्म में इस्लाम या फिर ईसाई धर्म के मुकाबले बहुत ही कम समानता मौजूद है। स्वर्ग और नर्क, ईश्वर एक है, ट्रिनिटी और ब्रह्मांड के निर्माण के उनके सिद्धांत मुसलमानों को स्वीकार्य नहीं है और ऐसा प्रतीत होता है कि यह ज़्यादातर ईसाई संप्रदायों को भी स्वीकार्य नहीं हैं।
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