ईश्वर में विश्वास (3 का भाग 1)
विवरण: इस्लाम धर्म का मर्म: ईश्वर में विश्वास और उसकी पूजा, और वे साधन जिनसे हम ईश्वर को खोज सकते हैं।
- द्वारा Imam Mufti
- पर प्रकाशित 04 Nov 2021
- अंतिम बार संशोधित 04 Nov 2021
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परिचय
इस्लाम के केंद्र है ईश्वर में आस्था और विश्वास। इस्लाम धर्म के मूल में है ला इलाहा इल्ला अल्लाह का कथन, “ईश्वर के सिवाय ऐसा कोई सच्चा देवता नहीं है जो पूजा के योग्य हो।” इस विश्वास की गवाही जिसे तौहीद कहते हैं, वह धुरी (तकला) है जिसके चारों तरफ़ इस्लाम धर्म घूमता है। साथ ही, दो साक्ष्यों में यह पहला साक्ष्य है जो किसी व्यक्ति को मुस्लिम बनाता है। केवल एक ईश्वर की अवधारणा या तौहीद को समझ कर उसके लिये संघर्ष करना ही इस्लामी जीवन का मर्म है।
बहुत से गैर मुस्लिम लोगों के लिये, अल्लाह, जो अरबी भाषा में ईश्वर का नाम है, दूर दराज़ का कोई अजीब सा देवता है जिसे अरब के लोग पूजते हैं। कुछ लोग तो इसे मूर्तिपूजकों का "चंद्र-देव" समझते हैं। लेकिन अरबी भाषा में, अल्लाह शब्द का अर्थ है एकमेव सच्चा ईश्वर। यहाँ तक कि अरबी बोलने वाले यहूदी और ईसाई भी उस सर्वशक्तिमान को अल्लाह ही कहते हैं।
ईश्वर की खोज
पश्चिमी दार्शनिक, पूर्व के मनीषी और आज के वैज्ञानिक ईश्वर तक अपने तरीके से पहुँचने का प्रयास करते रहे हैं। मनीषी एक ऐसे ईश्वर के बारे में सिखाते हैं जो आध्यात्मिक अनुभवों से मिलता है, जो इस संसार का भाग है और अपनी सृष्टि में ही रहता है। दार्शनिक केवल तर्क के आधार पर ही ईश्वर को खोजते हैं और अक्सर ईश्वर को एक घड़ीसाज़ के रूप में देखते हैं जो निर्लिप्त है और जिसे अपनी सृष्टि में कोई रुचि नहीं है। दार्शनिकों का एक समूह अनीश्वरवाद सिखाता है, एक विचारधारा जो मानती है कि ईश्वर के अस्तित्व को न सिद्ध किया जा सकता है और न ही नकारा जा सकता है। व्यावहारिक दृष्टि से कहें तो, एक अनीश्वरवादी मानता है कि ईश्वर में विश्वास करने के लिये ज़रूरी है कि उसे सीधे अनुभव किया जा सके। ईश्वर ने कहा है:
"और जिन्हें ज्ञान नहीं है वे कहते हैं: ‘ईश्वर हमसे बात क्यों नहीं करता या क्यों हमें कोई [चमत्कारिक] संकेत नहीं दिखाया जाता?’ इनके पहले भी लोगों ने इसी आशय से कहा है। उन सबके हृदय एक समान हैं..." (क़ुरआन 2:118)
यह तर्क कोई नया नहीं है; भूतकाल में और वर्तमान में भी लोगों ने यही आपत्ति की है।
इस्लाम के अनुसार, ईश्वर को पाने का सही तरीका पैगंबरों की उन शिक्षाओं के माध्यम से है जो सरंक्षित हैं। इस्लाम मानता है कि स्वयं ईश्वर द्वारा युगों युगों से पैगंबर भेजे जाते रहे हैं ताकि वे मनुष्यों को उस तक पहुँचने के लिये मार्गदर्शन कर सकें। ईश्वर ने पवित्र क़ुरआन में कहा है कि उसमें विश्वास करने का सही तरीका है उसके संकेतों को समझना जो उसकी ओर इंगित करते हैं:
"…निस्संदेह, हमने सभी संकेत बनाए हैं उन लोगों के लिये जो आंतरिक रूप से निश्चिंत हैं।" (क़ुरआन 2:118)
ईश्वर की कारीगरी का वर्णन क़ुरआन में कई स्थानों पर होता है जो दिव्य उपदेश में दृष्टिगोचर होती है। जो कोई भी इस संसार में प्रकृति के चमत्कारों को खुली आँखों और खुले मन से देखता है तो वह निर्विवाद रूप से महान सर्जक के संकेतों को देख पाएगा।
"कहा गया: सारी पृथ्वी पर घूमो और देखो किस तरह [चमत्कारिक ढंग से] उसने सबसे पहले [मनुष्य का] सृजन किया: और इसी तरह, ईश्वर तुम्हारे लिये दूसरे जीवन का सृजन करेगा – क्योंकि, निस्संदेह, ईश्वर के पास कुछ भी करने की शक्ति है।" (क़ुरआन 29:20)
ईश्वर की कारीगरी व्यक्ति के अंदर भी उपस्थित है:
"और पृथ्वी पर संकेत हैं [ईश्वर के अस्तित्व के, प्रत्यक्ष] उन लोगों के लिये जो आंतरिक रूप से निश्चिंत हैं, जैसे कि [संकेत] तुम्हारे अपने अंदर हैं: तब फिर क्या तुम इन्हें नहीं देख सकते?" (क़ुरआन 51:20-21)
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